माहे रमजान की फजीलतें- पत्रकार नईम कुरैशी

 अब्दुल करीम कुरैशी 

बे-शक रमज़ान की फ़ज़ीलत तमाम महीनो से ज्यादा है, रमजानुल मुबारक की हर रात, हर दिन, हर लम्हा और सारा महीना खुसूसियात का है। मगर इसमे खास यह है कि इस महीने में कुरआन शरीफ (Quran Sharif) नाजिल हुआ! रमज़ान की फ़ज़ीलत (The virtues of Ramadan) ये है  की अल्लाह पाक ने माहे रमजान में रोजा रखने का हुक्म दिया जिससे की मुसलमानों को गरीबी और तंगदस्ती में और भूक-प्यास से बिलखते इंसानों के दर्द व गम का एहसास हो जाए, दिल व दिमाग में जरूरतमंद मुसलामनों की कैफियत का जज्बा पैदा हो जाए और खुसूसी तौर पर मुसलमान रमजान के महिने में अल्लाह की इबादत की बदौलत खुद को पहले से ज्यादा अल्लाह तआला के करीब महसूस करता है। गरज कि महीने भर की इस मेहनत का मकसदे खास भी यही है कि मुसलमान साल भर के बाकी ग्यारह महीने भी अल्लाह तआला से डरते हुए जिंदगी गुजारे,जिक्र व फिक्र, इबादत व रियाजत, कुरआन की तिलावत और यादे इलाही में खुद को मसरूफ रखे।

नेकियों का बढ़ जाना 

(The virtues of Ramadanमाहे रमजान में रमजान की फ़ज़ीलत ये है की इसमें नेकियों का अज्र बहुत ही ज्यादा बढ़ जाता है 70 गुना तक लिहाज़ा कोशिश कर के ज्‍़यादा से ज्‍़यादा नेकियां इस महीने में जमा कर लेनी चाहियें। हज़रात अबू हुरैरह से मर्वी है की नबी (saw) ने फ़रमाया जिसने रमजान में रोज़े रखे ईमान यकीन के साथ उसके पिछने तमाम गुनाह माफ़ हो जाते हैं, ( सगीरा ) और जो कोई खड़ा रहा रमजान की रातों में (कियामुल लैल) ईमान के साथ, और जो लैलातुल कद्र में खड़े रहे .अमीरुल मुअ्मिनीन ह़ज़रते सय्यिदुना उ़मर फ़ारूक़े आज़म रजि से रिवायत है कि हुज़ूरे अकरम  फरमाते हैं, (तर्जमा) रमज़ान में जि़क्रुल्लाह करने वाले को बख़्श दिया जाता है और इस रमजान के महीने में अल्लाह पाक से मांगने वाला कभी भी मह़रूम ( वंचित ) नहीं रहता।

रमजान के महिने में अल्लाह की इबादत

रमजान ऐसा महीना है जिसमें हर रोज़ और हर समय इबादत होती है। जैसे की रोजा इबादत इफ्तार इबादत और इफ्तार के बाद तरावीह भी इबादत, तरावीह पढ़कर सहरी के इंतजार में सोना इबादत गरज कि हर पल खुदा की शान नजर आती है। कुरआन शरीफ में सिर्फ रमजान शरीफ ही का नाम लेकर इसकी फजीलत को बयान किया गया है रमज़ान के अलावा और किसी महीना को इतनी नेमत नहीं बख्सा गया है हम गौर करे कितनी बड़ी रमजान की फ़ज़ीलत हैं ये सब।

शबे कद्र 

रमजान की फ़ज़ीलत ये भी है की इसमें एक रात शबे कद्र है जो हजार महीनों से बेहतर है। रमजान में इब्लीस और दूसरे शैतानों को जंजीरों में जकड़ दिया जाता है (जो लोग इसके बावजूद भी जो गुनाह करते हैं वह नफ्से अमारा की वजह से करते हैं) (बुखारी)

 

हदीस

अल्लाह पाक ने रमजान की नेमतो में बेशुमार नेमते अता फरमाई हैं ढेर सारी रमजान की फ़ज़ीलत हदीसों में मिलती हैं

·         रमजान में नफिल का सवाब फर्ज के बराबर और फर्ज का सवाब 70 गुना मिलता है। रमजानुल मुबारक में सहरी और इफ्तार के समय (Time) दुआ कुबूल होती है हम सोचें इस बात को की ये कितनी बड़ी रमजान की फ़ज़ीलत है ये ।

·         हजरत अबू हुरैरा रजि अल्लाहु तआला अन्हू से रिवायत है ! कि नबी करीम सल्लल्लाहो अलेही वसल्लम ने इरशाद फरमाया यानी जब रमजान का महीना आता है ! तो जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाते हैं बुखारी शरीफ ज़-1 सफा 255 

·         हजरत अबू हुररा रदियल्लाहु तआला अन्हो से रिवायत है ! कि नबी करीम रऊफ व रहीम सल लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमायाः जब माहे रमज़ान आता है! तो आसमान के दरवाजे खोल दिए जाते हैं! जहन्नम के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं ! और शैतानों को कैद कर दिया जाता है। ( बुखारी : 255 . 1 )

 

रोज़े और कुरान की सिफारिश

हजरत उमर बिन अब्दुल्लाह (रजि0) से रिवायत है कि नबी करीम (सल0) ने इरशाद फरमाया -‘‘कयामत के दिन रोजो और कुरआन बंदे की शफाअत करेंगे, रोजे अर्ज करेंगे कि ऐ अल्लाह मैंने इसको दिन में खाने और शहवत से रोका। इसलिए तू इसके लिए मेरी शफाअत कुबूल फरमा और कुरआन कहेगा कि मैंने इसे रात में सोने से रोका। लिहाजा इसके हक में मेरी शफाअत कुबूल फरमा ले पस दोनों की शफाअत कुबूल होगी। (मिश्कात शरीफ)

गुनाहों से माफ़ी

रमजान जैसे पाक महीने में हमें चाहिए की इस रमजान की फ़ज़ीलत का भरपूर फायदा उठाए और खूब नेकियों के साथ साथ अस्ताग्फार की भी कसरत से ज़िक्र करना चाहिए, अपने गुनाहों की माफ़ी मांगना चाहिए और दिल से इरादा कर लेना चाहिए की सच्ची पक्की तौबा के साथ अब कभी भी उन गुनाहों की तरफ नहीं जाना है

 

सहरी की फ़ज़ीलत

रमजान की फ़ज़ीलत और तमाम खुसूसियात में से एक सहरी भी है। सुबह से पहले रात के आखिर हिस्से को सहर कहा जाता है और इस वक्त रोजा की नीयत से खाने को सहरी कहते हैं। इस वक्त का खाना पीना सुन्नत और बाइसे बरकत है। नबी करीम (सल0) ने फरमाया कि सहरी खाओ कि सहरी खाने में बरकत है। लिहाजा बिला किसी मजबूरी के सहरी खाना छोड़ना एक बरकत से महरूम होना है। सहरी आधी रात से शुरू हो जाती है मगर सुन्नत यह है कि रात के आखिरी छठे हिस्से में सहरी खाई जाए।

 

इफ्तार की फ़ज़ीलत

हजरत अबू हुरैरा (रजि0) फरमाते है कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया- अल्लाह तआला फरमाता है मेरे नजदीक महबूब बंदा वह है जो इफ्तार में जल्दी करे। हजरत सहल बिन साद फरमाते हैं कि नबी करीम (सल0) ने फरमाया- जब तक लोग जल्दी इफ्तार करते रहेंगे भलाई में रहेंगे। (तिरमिजी), भलाई का सबब यह है कि जल्दी इफ्तार करने में बंदो की तरफ से अल्लाह की बारगाह में अपनी आजिजी का इजहार करना है और अल्लाह की दी हुई इजाजत का जल्दी कुबूल कर लेना है। अगर इफ्तार उस वक्त किया जाए जब कि सूरज डूबने का गालिब गुुमान हो जाए।  हदीस में है कि अल्लाह तआला रमजान की हर शब इफ्तार के वक्त एक लाख दोजखियों को दोजख से आजाद फरमा देता है और वह ऐसे होते हैं जिन पर अजाब वाजिब होता है। मजहबे इस्लाम न सिर्फ इफ्तार का हुक्म देता है बल्कि दूसरे रोजेदारों को इफ्तार कराने की तरगीब भी देता है। हजरत जैद बिन खालिद (रजि0) फरमाते हैं कि नबी करीम (सल0) ने इरशाद फरमाया- जिस ने किसी रोजेदार का इफ्तार कराया उसके लिए उसी के मिस्ल सवाब है। इसके बगैर कि रोजेदार के सवाब में कुछ कमी हो। (तिरमिजी)

सहरी और इफ्तार की दुआ

इस्लाम में हर अमल का मामला इरादा और नियत से है , अगर नियत सही होगी तो रोज़े भी अच्छे होंगे और रमजान की फ़ज़ीलत का पूरा फायदा भी मिलेगा, हमने नियत कर लिया अगर की इस रमजान पूरे रोज़े रखना है तो हमारा ये इरादा ही हमारी नियत हो गयी, अलग से कोई दुआ पढने की ज़रूरत नहीं, फिर भी अगर दिल करे पढने का तो जो दुआए याद हो उनका तर्जुमा देख कर दुआ पढ़ लीजिये।

 

तरावीह

तरावीह की नमाज मर्द और औरत सबके लिए सुन्नते मोकिदा है इसका छोड़ना जायज नहीं। इस पर सहाबा ने मदावमत फरमाई है और खुद नबी करीम (सल0) ने भी तरावीह पढ़ी है। पाबंदी से तरावीह अदा करने वाले पर अज्र व सवाब के जखीरे के अलावा एक खास फायदा यह भी है कि दिन भर का भूक-प्यास के बाद इफ्तार और खाना खाने से तबीयत में जो भारीपन हो जाता है तरावीह पढ़ने से खत्म हो जाता है और मेदा हल्का होकर सहरी का खाना कुबूल करने के लिए तैयार हो जाता है जो सेहत के लिए काफी मुफीद है। तरावी में दो सुन्नत है एक तो तरावी में पूरा कुरआन सुन्ना सुन्नत है, दूसरा पूरे महिने तरावी पढना सुन्नत है। रमजान की फ़ज़ीलत में तरावीह भी बहुत अहम् इबादत है, तरावीह की नमाज़ सुन्नत इ मोअक्केदा है, ईशा की नमाज़ के बाद 2 -2 रकात कर के 20 रकात तरावीह नमाज़ अदा करनी चाहिए, ताकि कुरआन मुकम्मल हो जाए, हमें चहिये की जहां भी रहें रमजान की हर रात में तरावीह की नमाज़ ज़रूर अदा करे. तरावीह की जब 4 रकात हो जाए तो थोड़ी देर बैठ कर ये दुआ पढ़ लेनी चाहिए।

अशरा

यह वह महीना है जिस का अव्वल हिस्सा रहमत बीच का हिस्सा मगफिरत और आखिरी हिस्सा निजात यानी जहन्नुम से आजादी का है। (मिश्कात शरीफ) अशरा यानी 10 , 10 की गिनती को अशरा कहते हैं , रमजान के पूरे महीने में तीन अशरे होते हैं, पहले 10 दिन (1-10) में पहला अशरा, दूसरे 10 दिन (11-20) में दूसरा अशरा और तीसरे दिन (21-30) में तीसरा अशरा बंटा होता है, लेकिन इन तीनों का अलग- अलग महत्व है। रमजान के महीने को लेकर पैगंबर मोहम्मद (SAW) साहब ने कहा है कि रमजान के पहले अशरे में रहमत है, दुसरे अशरे में मगफिरत यानी माफी है और आखिरी अशरे में जहन्नम की आग से बचाव है।

पहला अशरा

रमजान का पहला अशरा यानी पहले दस दिन, रामजान के महीने के पहले 10 दिन रहमत के होते हैं। इस महीने में रोजा रखने और नमाज पढ़ने वालों पर खुदा की रहमत बरसती है। इन दिनों में मुसलमानों को गरीब लोगों की मदद करनी चाहिए और लोगों से प्यार के साथ पेश आना चाहिए। क्युकी इसमें रहमत बरसती रहती है , वेसे तो हमेशा रहता है ये मामला मगर इन 10 दिनों में ज्यादा रहता है और ये रमजान की फ़ज़ीलत हर अशरे में मिलेगी

दूसरा अशरा

रमजान का दूसरा अशरा यानी रमजान के 11वें रोजे से 20वें रोजे तक का सफर माफी का होता है। रोजे रखकर मोमिन (मुसलमान) इस अशरे में खुदा की इबादत कर के अपने गुनाहों से माफी पा सकते हैं। सच्चे दिल से जो भी मुसलमान खुदा की इबादत करता है और रोजा रखता है तो खुदा उसके गुनाहों को माफ कर देता है।

 

 

तीसरा अशरा

रमजान का तीसरा और आखिरी अशरा यह बहुत महत्वपूर्ण है, यह अशरा 21वें रोजे से चांद के हिसाब से 29वें या 30वें रोजे तक चलता है। तीसरे अशरे का मकसद जहन्नम (दोजख) की आग से खुद को बचाना है। इन दिनों मुसलमान रोजे रखकर और इबादत करके जहन्नम से बचने के लिए अल्लाह से दुआ करते हैं। लिहाज़ा खूब इस्ताग्फर करना चाहिये, इस अशरे में शबे कद्र भी मिलती है

शबे कद्र

रमजान की कई फ़ज़ीलत में से एक फ़ज़ीलत ये भी है की इसमें एक रात होती हैजो शबे कद्र कहलाती है ,इस रात इबादत करने से हज़ार रातों की नफ्ली इबादत से भी ज्यादा सवाब ओ अजर मिलता है लिहाज़ा इन रातों का एहतेमाम करना चाहिए , ये रात रमजान की आखिरी अशरे यानि तीसरे अशरे में पाई जाती है ,आम तौर पर लोग 27वि रात को मानते हैं ऐसा मगर ये जरूरी भी नही है की 27वि ही हो, इसलिए आखिरी अश्रे में इबादतों को और बढ़ा देना चाहिए .

रमज़ान की आखिरी रात / चाँद रात

आम तौर पर देखा जाता है की चाँद रात होते ही लोग बाजारों की रौनक बढ़ा देते हैं मार्केटिंग कर के , जबकि असल रात मांगने की यही है, सोचिये कोई मजूदर 30 दिन मजदूरी करे और जिस दिन सैलेरी मिलना हो उस दिन वो लेने ही ना आए तो कैसा लगेगा, यही हाल है चाँद रात का उस दिन अल्लाह पाक से मांगने की रात होती है रमजान की फ़ज़ीलत की खास बातों में ये भी बड़ी ख़ास नेमत है, लिहाज़ा जब शव्वल का चाँद यानि ईद का चाँद नज़र आ जाए तो उस रात बाज़ारों में जाने के बजाए ख़ूब इबादात करें और अल्लाह से मांगे इन श अल्लाह कुबूल होंगी दुआए। व अखिरू दावाना अलाह्म्दुलिल्लाही रब्बिल आलमीन! BY ABDUL KAREE, QURESHI

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